डार्क हॉर्स
पर पान की दुकान पर लिट्टी-चोखा की दुकान पर जलेबी की दुकान पर और चाट-
पकौड़ी की दुकान पर होते थे अपने इलाहाबाद को बहुत मिस करते थे। अमिताभ बच्चन
से भी कई गुना ज्यादा 'अहा! छेदन का पान, ओहो ! मंटू की जलेबी, हाय! नेतराम की
कचौड़ी, हाय रे! पलटन का पकौड़ा, साला लल्लन की चाय ओह । पिया मिलन चौराहा'.
ऐसे शब्द हर शाम मुखर्जी नगर में अवीर की तरह उड़ते थे। अपने छूटे शहर और विश्वविद्यालय के प्रति ऐसा मोह शायद ही अन्य जगहों से आए छात्रों में था। "रुस्तम भाई, एक हेल्प करिए ना ये संतोष जी को कमरा चाहिए था जुगाड़ हो तो बताइए।" रायसाहब ने कहा। "अच्छा, कमरा? ओह! देखते हैं, कुछ लाँडो को लगाते हैं।" रुस्तम ने फोन
निकालते हुए कहा। रायसाहब ने संतोष की तरफ हँसते हुए बधाई की नजर से देखा कि मानो कमरा तो मिलना तय है अब "हेलो! बल्लू, हाँ बेटा! कोई कमरा खाली है क्या तुम्हारे गाँधी बिहार में?" एकदम
अभिभावक वाले अंदाज में पृच्छा रुस्तम ने उधर से कुछ अस्पष्ट-सी आवाज आई। “ठीक है, सारे लड़कों को बता दो कि रुस्तम भइया कमरा देखने बोले है। एक अपना ही चला है बिहार का उसके लिए चाहिए। " रुस्तम सिंह ने एकदम अभिभावक वाले लहजे में कहते हुए फोन काटा।
"देखिए, लड़कों को तो एक्टिव कर दिया हूँ, मिल जाना चाहिए। नहीं तो फिर मुझे काल कर देना आप अभी में एक पार्टी में निकले रहा हूँ, कल फिर दर्शन होगा " कहकर रुस्तम अपनी बाइक स्टार्ट कर निकल गया।
संतोष इधर यही सोच रहा था कि कैसे वह खड़े-खड़े बिना रुस्तम का गुरुत्व स्वीकारे 'चेला' हो गया था। उसने सोचा कि रायसाहब से पूछे पर फिर चेला होने को ही अपनी नियति मानकर चुप रहा। उसके मन में यह बात भी चल रही थी कि चलो अच्छा हुआ आज पढ़ाई-लिखाई पर कोई चर्चा नहीं हुई, नहीं तो गलत बोलकर फँस जाता तो भी चेला ही कहाता अच्छा हुआ बिना फजीहत के बेला बन गया। रुस्तम के अंदाज ने संतोष को प्रभावित किया था। वह रुस्तम के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता था।
रुस्तम सिंह इलाहाबाद के रहने वाले थे। विश्वविद्यालय में पढ़ाई के बाद दिल्ली आईएएस की तैयारी के लिए आ गए थे। नेताई रुस्तम सिंह के स्वभाव में थी लंबी-लंबी हाँकना । दो-चार पतले-दुबले मरमरहा से सेवकों के साथ घूमना उनके व्यक्तित्व में पाँच- छः चाँद लगाता था। रुस्तम सिंह का सामाजिक दायरा बहुत बड़ा था ऐसा उनके कर्ज लेकर फुटानी करने की बीमारी के कारण भी था। इनके कुछ मित्र अच्छी जगहों पर स्थापित थे। उनके हर घरेलू आफत या खुशी में शामिल होकर इन्होंने एक कामचलाऊ समाजसेवी का भी ऐच्छिक पद प्राप्त कर लिया था। रुस्तम सिंह कुल मिलाकर इलाहाबादी मठाधीशी परंपरा के दिल्ली प्रभारी के रूप में कार्यरत थे। ये चला पालने में फिरोज शाह तुगलक के साढू भाई थे। चेला बनाना और चेला से खाना बनवाना कोई इनसे सीख। ये या तो आदमी को अपना चेला बनाते थे या जिससे इनकी फटती थी उसको गुरु बना लेते थे पर अपने समकक्ष किसी को नहीं रखते थे।
कई और छात्रों की तरह ये भी दिल्ली आईएएस बनकर आसमान छूने आए थे पर